मंगलवार, 9 दिसंबर 2008


आँख से जो टपका वो लहू रहा होगा,कतरा कतरा दिल से निकल बहा होगा।
जब दर्द बहुत हुआ होगा हमको, उसने अपनी भीगी पलकों से हमें छुआ होगा।
दूर और दूर कहीं शब् के सन्नाटे में, उसने तकिये को अपनी बाहों में लिया होगा।
याद में मेरी जो भर आयी होंगी आँखें, उन आंसुओं को चुपचाप उसने पिया होगा।
चाँद जब रात को बादलों से निकला होगा,उसने यादों की चादर ओढ़ लिया होगा।
मैं हूँ ,यहीं हूँ और पास ही हूँ उसके, अपने दिल को ये तसल्ली उसने दे दिया होगा।
उसकी रातें कभी वीरान नही होती, उसने ख़ुद को मेरी खुशबु में भिगो दिया होगा।
शज़र उदास होंगे मगर चिरिया नही गुमसुम,मेरे गीत उनको उसने सुना दिया होगा.....
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दर्द की बात नही करता हूँ
मैं दवा बन के उभरता हूँ।
आँख में काजल सा तेरे ,
सुबह शाम मैं संवारता हूँ।
होठों पे अश्क बन फिसलता हूँ,
फ़िर मोतियों सा मैं बिखरता हूँ।
गालों पे तेरे गुलाब की रंगत,
बादलों सा तेरी जुल्फों में उतरता हूँ...
तेरी आंखों से चुरा काजल की लकीर,
रात बन कर मैं ख़ुद ही निखरता हूँ।
तू समंदर की शोखी ले मचलती है,
मैं दरिया हूँ,तुझमे उतरता जाता हूँ....

4 टिप्‍पणियां:

makrand ने कहा…

तेरी आंखों से चुरा काजल की लकीर,
रात बन कर मैं ख़ुद ही निखरता हूँ।
तू समंदर की शोखी ले मचलती है,
मैं दरिया हूँ,तुझमे उतरता जाता हूँ....
accha laga padker
bahut umda
regards

रंजना ने कहा…

waah ! bahut bahut sundar bhavabhivyakti.

mehek ने कहा…

bahut sundar

नीरज गोस्वामी ने कहा…

होठों पे अश्क बन फिसलता हूँ,
फ़िर मोतियों सा मैं बिखरता हूँ।
bahut khoob....
neeraj