रविवार, 20 फ़रवरी 2011

मन हुआ पतंग

मन हुआ पतंग -
उड़ा दिग दिगंत।
पहुंचा पिया के गाँव -
और रंग गया बसंत।
गाते देवदार फिर झूम,
बदल धरती को लेते हैं चूम,
मन महके बन कर अगरुधूम,
फिर हो जाता सूरज का तुरंग।
मन हुआ पतंग।
जीवन में बस है यही चाह,
ले जाये तुझतक हरेक राह,
खुशियाँ तुझको मैं दूँ अथाह,
भर दूँ जीवन में राग रंग।
मन हुआ पतंग।
-नीहार
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नीम के गाँव की हवा ले लूँ,
आओ अपने जीने की दवा ले लूँ।
पत्तियों से सांस ले लूँ धूप की ,
फूलों से खुशबू ए सबा ले लूँ।
मैं तेरे साथ चलना चाहता हूँ,
पर तेरी भी तो मैं रज़ा ले लूँ।
जीने के वास्ते और क्या चाहिए,
बस तेरा प्यार और दुआ ले लूँ।
-नीहार
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सुनना चाहो तो सुन लो मुझको,
सुहाने ख्वाब सा बुन लो मुझको।
मैं तेरे लब पे गुलाब सा हो जाऊं,
अपनी साँसों से जो चुन लो मुझको।
हर वक़्त सिर्फ एक काम करता हूँ,
तुझको ही याद करूँ ये धुन दो मुझको।
शब् है सन्नाटा है और मेरी याद भी,
अपनी पलकों से तुम चुन लो मुझको।
-नीहार
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जिंदगी उसके बगैर जैसे एक बुरा ख्वाब है,
एक बहका सा दिन है,एक सहमी सी रात है।
फूलों की खुशबू खोयी सी और उड़े से सारे रंग।
बादल को पी के जिए जा रही ये कायनात है।
उसको खुदा से मांगते हैं हम रोज़ अपनी दुआ में,
वो अगर मेरे पास तो फिर रोज़ शब् ए बारात है।
-नीहार

1 टिप्पणी:

विशाल ने कहा…

विजय जी,
चारों सुन्दर रचनाएँ.

जीवन में बस है यही चाह,
ले जाये तुझतक हरेक राह,
खुशियाँ तुझको मैं दूँ अथाह,

सलाम