झड़े पेड़ से...
और नवांकुर हंस दिए -
खिलखिलाकर।
कितना निरुपाय है यह पत्र...
है कितना शक्तिहीन,
कितना विवश।
खुद को सँभाल नहीं पाता,
और बिखर जाता है.....
टूट कर हवा में तिरता ये सूखा पत्ता।
डोलता हुआ....
अपनी भुजाओं को खोलता हुआ....
ज़मींदोज़ होने से पहले,
मृत्तिका को चूमने से पहले....
कमज़ोर आवाज़ में बोल पड़ा ,
की मैं अगर गिरकर...
मिटटी में न मिलूं -
तो फिर इस पेड़ को खाद कौन देगा...
जीने का स्वाद कौन देगा।
और,
अगर ये न जिया...
मेरे शरीर के निचुड़े रस को,
जो इसने न पिया....
तो फिर तुम्हे ये कैसे जन्म देता...
कैसे तुम्हे इतनी खूबसूरती बख्शता,
तुम्हारे रंग इतने चटकदार और तेजोमय न होते...
और न ही तुम गर्व से सर उठा सकते।
हे नवांकुर पत्र,
तुम्हे खूबसूरती देने को -
हमें सूखना पड़ता है...
हमें टूटना पड़ता है।
तुम्हारे जीवन के लिए ,
हमें मृत्यु का वरण करना पड़ता है।
जीवन चक्र का यही खेल है,
यही है प्रकृति का नियम।
जिस दिन तुम्हारे शावक पत्र,
अपनी कोंपलें फ़डफ़डाएन्गे....
सच कहता हूँ,
उस दिन आप भी....
यूँ ही टूट कर ....बिखर कर...
मिटटी में मिल जायेंगे।
-नीहार
1 टिप्पणी:
aapki sari rachanaon ko padha ...vakai bahut achchha likhate hain aap ..shubhkamna
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