मन की पीड़ा व्यक्त करना चाहता हूँ...
मैं तुम्हारे अधर में गुम्फित हो के आज,
अपने वेदना को स्वर देना चाहता हूँ....
मन तो है अविरल सलिल की धार सा,
अपनी उद्दाम वासना के वेग के अतिरेक में,
तोड़ डाले है भुजंग सा सर पटक,
रास्ते की हर शिला को....
मैं तुम्हारे तन से यूँ लिपटा हुआ,
जैसे लोहित सूर्य से उसकी किरण,
मैं चकित हूँ देखता तुमको अपलक,
ज्यूँ बधिक को देखता कोई हिरन...
मैं तप्त होकर घूमता बेचैन सा,
और फिर ज्वाला सी धधक कर फूट जाता हूँ....
मैं तुम्हारे बदन की रागिनी से ,
रंग के निर्झर सा फिर टूट जाता हूँ...
मैं तुम्हे जब भी कभी अपलक देखूं,
रूप की अराधना का मार्ग होता है प्रशस्त,
भर के तेरे रूप को अपनी आँख में फिर,
आसुओं की धार सा बहता हूँ मैं...
तुम सुरीली यामिनी की चन्द्रमा सी,
खिल के हरती हो मेरा सारा तिमिर,
मैं तुम्हारी सांस की वीथियों से गुज़रकर,
तुमको एक रंग और रूप देना चाहता हूँ...
मैं तुम्हारे केश में उलझे मेघ सा,
टूट कर सावन सा बरसना चाहता हूँ...
कौन है जो रोकता है मुझको आज,
कौन है जो मेरी बाहों को बाँध लेता है...
कौन है जो बादलों की ओट से ,
आवाज़ देता है मुझको हर घडी ...
मैं किसी राका की उजियारी किरण ,
मैं तुम्हारी आँख में जलना चाहता हूँ,
मैं तुम्हारे काँधे पर रख कर अपना सर,
आखरी नींद फिर मैं आज सोना चाहता हूँ।
-नीहार
2 टिप्पणियां:
मैं तुम्हारे काँधे पर रख कर अपना सर,
आखरी नींद फिर मैं आज सोना चाहता हूँ।
बहुत ही भावपूर्ण रचना बधाई ....
बहुत ही भाव भीनी कविता दिल से निकल कर दिल में प्रवेश करती हुई..मैं चकित हो जाती हूँ ..इतना कुछ समेत लेते हैं आप .
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