बुधवार, 4 मई 2011

सुख का बीज मंत्र

कल ही तो मैंने - एक घरौँदा बनाया था ,
और , आज उसे तोड़ डाला (या तोड़ने को मजबूर हुआ)।
यानि - जिंदगी को एक अनजाने राह पे मोड़ डाला(यूँ खुद से दूर हुआ)।
स्तब्ध हूँ मैं - अशांत भी,
यानि - मेरे भीतर और बाहर का कोना कोना
- रो रहा है, अपनी किस्मत का रोना।
आंसू बहते नहीं - खून भी सफ़ेद हो गया है।
कल तक का महाभारत - आज से चारों वेद हो गया है।
कुछ समझ में नहीं आता - समझना चाहता भी नहीं।
क्यूँकि जानता हूँ - व्यक्ति और व्यक्ति के बीच की जो दूरी है,
वही हर व्यक्ति कई अपनी मजबूरी है।
और कुछ भी बातें हैं-जो भीतरघातें हैं ।
पर, दरअसल - मेरी समझ की दानी बहुत छोटी है,
सीधे सपाट लहजे में, मेरी अक़ल थोड़ी मोटी है ।
तो - जो वह कल का घरौँदा था,
आज मेरे सामने ही मुंह औंधा था।
यानि, न घर बचा था न घाट ,
चारों तरफ बाट ही बाट - सपाट सपाट।
उसी सपाट बाट पर - और उस बाट के चौराहे पर,
मुझे मिला एक ग्यानी/पंडित -
जिसके अनुसार - समय कर रहा था मुझे दण्डित।
हँसते हुए उन्होंने मुझसे कहा की ऐ वत्स
तुमने जो घरौंदे का सपना जो पाल रक्खा था,
उसे बनाने के लिए तुम निकल गए वक़्त से आगे -
इसलिए, आज तुम खुद को पा रहे अभागे।
तुम जो सोचते हो - वही रोचते हो।
पर कुछ लोग जो रोचते हैं , वो सोचते नहीं।
तुम्हारा घर कुछ लोगों की दोतरफा सोचों का नतीजा थी ,
इसलिए भरभरा के बालू के मकान सा,
आ गिरी थी हवा के हलके झोंको से।
तुमने सोच और रोच को एक किया ,
काम कई नेक किया।
जिस किसी की आँख में आंसू देखा,
उसे उँगलियों की पोरों से उठा , भर लिया अपनी आँख में,
और उनके भीतर की आग को पी - बदल दिया यसे राख में।
तुम दूसरों की सुख शान्ति के लिए जिए-
दूसरों के हिस्से का ज़हर तुम ही पिए।
जब तुमने यह सब किया , तो सचमुच तुम ने जिंदगी को जिया है।
यह तुम समझ लो की तुम्हारा घर टूटा नहीं - विस्तृत हो गया है - बड़ा हो गया है।
विस्तृत नभ - फैली हुयी धरती के बीच,
तुम्हारा "मैं" सिमट कर छोटा हो गया है।
घरौंदा/घर टूटने का अब गम, नहीं करना है,
क्यूँ की तुम्हारे लिए तो सबका घर अपना है - सुख अपना है -
दुःख अपना है - और यह सब,
उनके लिए बस सपना है,
जो सोच और रोच को अलग करते हैं -
वो रोज़ एक नयी मौत मरते हैं।
तुम रोओ मत - दुखी मत हो -
सुख का बीज सर्वत्र बोओ ।
अपने पाप दूसरों के पुण्य से धोओ

एक के घर में पैर - दूसरे के घर में सर,
तीसरे के घर में धड रख कर -
चैन की नींद सोओ।

8 टिप्‍पणियां:

Amrita Tanmay ने कहा…

विजय जी ,सुख का मूलमंत्र दे दिया है ..
सुख का बीज सर्वत्र बोओ ।
अपने पाप दूसरों के पुण्य से धोओ

स्तब्ध हूँ कैसे लिख लेते हैं आप?सारगर्भित कविता के लिए बधाई।

डॉ. मोनिका शर्मा ने कहा…

सुख का बीज सर्वत्र बोओ ।
अपने पाप दूसरों के पुण्य से धोओ
एक के घर में पैर - दूसरे के घर में सर,
तीसरे के घर में धड रख कर -
चैन की नींद सोओ।

bahut badhiya.....aapki baat sahi bhi hai aur arthpoorn hai....

Kunwar Kusumesh ने कहा…

तुम रोओ मत - दुखी मत हो -
सुख का बीज सर्वत्र बोओ ।
अपने पाप दूसरों के पुण्य से धोओ
एक के घर में पैर - दूसरे के घर में सर,
तीसरे के घर में धड रख कर -
चैन की नींद सोओ।

काफी पहले एक कहावत सुनी थी:-

बाबा सोवें ई घर मा,टांग पसारें ऊ घर मा.

आपकी कविता पढ़कर उक्त कहावत याद आ गई.

ज्योति सिंह ने कहा…

कुछ समझ में नहीं आता - समझना चाहता भी नहीं।
क्यूँकि जानता हूँ - व्यक्ति और व्यक्ति के बीच की जो दूरी है,
वही हर व्यक्ति कई अपनी मजबूरी है।
और कुछ भी बातें हैं-जो भीतरघातें हैं ।
kya baat kahi hai aaj ke sandarbh ko lekar ,ati sundar rachna .

निवेदिता श्रीवास्तव ने कहा…

प्रभावी अभिव्यक्ति......

daanish ने कहा…

तुम रोओ मत - दुखी मत हो -
सुख का बीज सर्वत्र बोओ ।
अपने पाप दूसरों के पुण्य से धोओ

kaavya mei
zindgi ka falasfaa jhalak rahaa hai
har baat steek aur saarthak
aur
कल तक का महाभारत - आज से चारों वेद हो गया है
kuchh alag-saa lagaa,,,
aapne khud bhi kahaa
कुछ समझ में नहीं आता
समझना चाहता भी नहीं....

Minakshi Pant ने कहा…

जीवन सच में एक अनसुलझी हुई पहेली ही तो है कभी इस तरफ कभी उस तरफ समझ में ही नहीं आता की हमसे चाहती क्या है |
बहुत खुबसूरत रचना जीवन के पहलुओं को दर्शाने में कामयाब |

मदन शर्मा ने कहा…

पहली बार आपके ब्लॉग पर आना हुआ |
आपकी सारी रचनाएं पढ़ी बहुत अच्छा लगा !
सुन भाई साधो... पोस्ट बहुत पसंद आया
अफ़सोस है की पहले क्यों नहीं आया आपके पोस्ट पर !
आप मेरे ब्लॉग पे पधारे इस के लिए बहुत बहुत धन्यवाद् और आशा करता हु आप मुझे इसी तरह प्रोत्साहित करते रहेगे
आपको मेरी हार्दिक शुभ कामनाएं !