मुझे - यानि सिर्फ मुझे -
एक अँधेरे ने जकड़ रक्खा है ,
अपने मजबूत हाथों में पकड़ रक्खा है।
वे जानते हैं की मैं समरथ हूँ -
सूरज अपनी हथेली पर उगा सकता हूँ,
और, धूप की चाशनी में खुद को पका सकता हूँ।
वो ये भी जानते हैं कि ,
जिस दिन सूरज कि खेती शुरू हो जाएगी,
उस दिन उनकी अस्मिता ही खो जाएगी।
लोग अँधेरे कि आड़ ले सूरज उगायेंगे ,
और -
अपने हथेलियों पर सरसों सी धूप खिलाएंगे ।
और जब, हथेलियों पर उगा सूरज -
अपनी रौशनी चारों ओर बिखेरेगा , तो -
अँधेरे का देवता कर जाएगा कूच, और तब ही -
सही अर्थों में समाजवाद आएगा ।
समाजवाद यानी वह 'वाद ', जहाँ सूरज कि धूप -
सबको बराबर मिलेगी/ हर चेहरे पर हंसी बराबर खिलेगी।
अँधेरे के देवता यह भली भांति जानते हैं कि,
'समरथ को नहीं दोष गोसाईं ,
समरथ होत खुदा कि नाईं ।'
- समरथ को यह मालूम है कि,
युद्ध और प्रेम में सब जायज है- सब सही है,
और -
समरथ के हाथ में ही किस्मत की बही है।
इसलिए अँधेरे ने जकड़ रक्खा है समरथ कि बाहें ,
अंधी कर दी है उसकी दूर देखने वाली आँखें,
क़तर डाली हैं उसकी नर्म नाज़ुक पांखें।
पर कब तक? कितने दिनों तक?......
कल फिर नए पंख उगेंगे....
आँखों में नयी चमक फिर से कौन्धेगी...
बाहें शक्तिशाली हो फिर से फरकेंगी...
और, तब -
समरथ- यानि मैं
चीड़ डालूँगा अँधेरे कि छाती को- और,
उसके रक्त से , अपनी हथेली कि ज़मीन सींच,
सूरज उगाऊंगा ....
सही अर्थों में,
मैं ही रौशनी का प्रतिनिधि कहलाऊंगा।
5 टिप्पणियां:
वे जानते हैं की मैं समरथ हूँ -
सूरज अपनी हथेली पर उगा सकता हूँ,
और, धूप की चाशनी में खुद को पका सकता हूँ।
.... वाह , और समरथ को पार कौन कर पायेगा , खुदा समरथ के साथ होता है , समरथ यानि समर्थ
अँधेरे को तोड़ने के लिय ऐसा ही जज्बा चाहिए...
वे जानते हैं की मैं समरथ हूँ -
सूरज अपनी हथेली पर उगा सकता हूँ,
और, धूप की चाशनी में खुद को पका सकता हूँ।
waah bahut khoob
सूरज उगाने की जिद ही तो हमें अँधेरे से रोशनी तक जाने को प्रेरित करती है ..समाजवाद की चाहत ही हमें उद्देश्य से विमुख नहीं होने देती है ...फिर से पूछूं ...कैसे लिख लेते हैं आप....
सूरज उगाऊंगा ....सही अर्थों में,
मैं ही रौशनी का प्रतिनिधि कहलाऊंगा।
Magical lines of the post !!!
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