यूँ सपने पकड़ना बुरी बात नहीं - पर,
असफल होने पर रोना या दुखी होना बुरी बात है।
मैंने बचपन से अपने तसव्वुर में कई सपने पाल रक्खे थे...
कुछ रंगीन... कुछ सफ़ेद... कुछ गीले...कुछ सूखे...
जवानी का सूरज चढ़ता गया - सपनो की बर्फ गलती गयी।
पर मुझे न तकलीफ होना था... न हुआ।
मुझे लगा ही नहीं की दुक्खों ने मुझे छुआ।
मुझे सदा ये लगता रहा की दुःख मुझे माँज रहे हैं,
या - फिर मैं ही दुक्खों को माँज रहा हूँ।
पर, शायद मैं यह नहीं जान पाया
की -
मांजने और मंज्वाने की इस क्रिया प्रक्रिया में -
कहीं न कहीं मैं -
भीतर से दरक रहा था - टूट रहा था।
मेरा संग खुद से ही छूट रहा था।
और, अचानक जब दर्द की एक लहर - मुझे सर से पाँव तक चीर गयी
तो लगा -
कि इन सबसे मुक्ति पाने की कगार पर हूँ -
मुक्ति?
और किस से ?
प्रश्न बहुत सारे हो सकते हैं - और उत्तर भी।
उत्तर मेरे प्रश्नों को बहरा कर सकते हैं- या,
मेरे प्रश्न - उत्तरों को नंगा कर सकते हैं।
पर, सच तो यही है - कि,
चाहे प्रश्न कि जीत हो या उत्तर की ,
दरकेगा - कसकेगा - रिसेगा ,
मेरा ही कोई कोना - मेरे ही अन्तः का कोई एक भाग।
और, इसलिए अपने को हार जीत की सीमा से ,
परे मैं रखता हूँ और रखना चाहता हूँ।
और ,
इस कोशिश में -
कुछ न कुछ - कहीं न कहीं से दरकता हूँ।
टूटता हूँ - छूटता हूँ - खुद ही खुद को लूटता हूँ।
1 टिप्पणी:
achhi lagi aapki rachna , badhai
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