सोमवार, 16 अगस्त 2010

बिखर जाता हूँ जब टूट के पत्तों पे मैं नीहार.......

कुछ बातें तुम में हैं ऐसी जो मुझको खींचा करती हैं,
तुम्हारी खिली सी हसीं हर पल मेरी पीडाओं को हरती हैं।
मैं सागर की लहरों सा हर पल बस साहिल से टकराता हूँ,
मैं चीड वनों की मदमाती सी झुंडों में बस गुम हो जाता हूँ,
मैं स्वप्न लोक में विचरण करता हूँ तुमको अपने संग लिए,
तेरी यादें फूलों सी मुझ पर फिर बिखर बिखर कर झरती हैं।
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मुक्त हो आकाश में मन मेरा कर रहा विचरण प्रिये,
सांझ की बेला में मैं करता नित पी का सुमिरन प्रिये।
चक्र है बस समय का जो चल रहा देखो पल पल प्रिये,
सांस तेरी घुल गयी है मुझमें जैसे घुली धड़कन प्रिये।
तुम खिली हुयी चांदनी बन छिटकी हुयी हो इस समय,
मैं हुआ विस्तृत तुझको समेटे जैसे हो नील गगन प्रिये।
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बिखर जाता हूँ जब टूट के पत्तों पे मैं 'नीहार' ,
कुछ लोग मोती समझ उठा लेते हैं मुझको।
लेते ही हाथों में जो हो जाता हूँ मैं बस पानी ,
फिर धीरे से हथेली से गिरा देते हैं मुझको।
मैं बादल बन भटकता रहा मन के गगन में,
कोई भी हवा अपने संग उड़ा लेती है मुझको।
मैं नदी की पवित्र धार सा बहता रहा अविरल,
वक़्त जहाँ चाहे वहां से मुड़ा देती है मुझको।
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-नीहार (जमशेदपुर , अगस्त १२)

3 टिप्‍पणियां:

वाणी गीत ने कहा…

बिखर जाता हूँ जब टूट के पत्तों पे मैं 'नीहार' ,
कुछ लोग मोती समझ उठा लेते हैं मुझको।
लेते ही हाथों में जो हो जाता हूँ मैं बस पानी ,
फिर धीरे से हथेली से गिरा देते हैं मुझको....

वाह ...!

شہروز ने कहा…

लेते ही हाथों में जो हो जाता हूँ मैं बस पानी ,
फिर धीरे से हथेली से गिरा देते हैं ......!!!



बहुत खूब! क्या बात है !


हमज़बान यानी समय के सच का साझीदार
पर ज़रूर पढ़ें:
काशी दिखाई दे कभी काबा दिखाई दे
http://hamzabaan.blogspot.com/2010/08/blog-post_16.html

Udan Tashtari ने कहा…

बहुत उम्दा!