बुधवार, 11 मार्च 2015

कविता १

तुम झोलियाँ भर भर ख़ुशियाँ बाँटती हो-
मुट्ठी मुट्ठी  मैं संभालता हूँ उन्हें ...
और ,
फिर भी मेरे हाथ -
कुछ नहीं लगता...
ख़ुशियाँ रेत हो कब,
मुट्ठी से सरक जाती-
पता ही नहीं चलता...
मैंने सीखा है -
ख़ुशियों को संभालने की ज़रूरत नहीं ...
बस उन पलों को भरपूर जीना चाहिये ,
जो खुशियों को आपके दरवाज़े तक -
बेआवाज ले आते हैं ...
ख़ुशियों को जीना ही पाना है-
ख़ुशियाँ पूँजी नहीं,
जो जमा होती रहें ...
- नीहार



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