तुम लकीर के उस पार थी –
और,
मैं लकीर के इस पार...
न ही तुम सीता की तरह,
किसी लक्ष्मण के वचन से वद्ध थी –
और,
न ही मैं किसी काल के हाथों –
रावण रूपी कोई खिलौना था.....
न ही तुम्हें खुद को अपहरित करा,
किसी मर्यादा पुरुषोत्तम के विजयश्री का –
कारण बनना था....
और न ही –
मुझे किसी राम के हाथों मृत्यु का वरण कर ,
खुद को निष्कलंकित मोक्षत्व ही देना था....
हम बंधे थे अपने अपने,
परिष्कृत संस्कार से ...
और,
इसलिए तुम....ता -उम्र इंतज़ार करती रही मेरा,
की मैं कब उस लकीर को लाँघूँ...
और,
मैं इंतज़ार करता रहा तुम्हारा....
की कब तुम लकीर के इस पार आओ...
फर्क कुछ भी न था...
हमारा इंतज़ार ही हमारा प्यार था....
और-
जब हमने यह समझ लिया तो –
हमारे बीच की लकीर ,
खुद ब खुद मिट गई....
हम एकाकार हो गए....
-
नीहार (चंडीगढ़ ,जून 23, 2012)
11 टिप्पणियां:
वाह................
बहुत बहुत सुन्दर.................
अनु
बहुत खूब ....पर अपने लिए रावण का बिम्ब क्यों ?
हमारा इंतज़ार ही हमारा प्यार था.... प्यार ही इन लकीरों के संस्कार को समझता है
वाह ... बहुत ही अच्छी प्रस्तुति
कल 27/06/2012 को आपकी इस पोस्ट को नयी पुरानी हलचल पर लिंक किया जा रहा हैं.
आपके सुझावों का स्वागत है .धन्यवाद!
''आज कुछ बातें कर लें''
वाह …………प्यार लकीरों का मोहताज कब हुआ है।
धन्यवाद अनु...
संगीता जी,रावण से बड़ा वेद का ज्ञाता कोई नहीं और अगर उसके अपहरण के कृत्य को नकार दें तो उसके विवेक और सद्गुणों पर भी आशंका नहीं की जा सकती...रावण एक प्रतीक है जो हमें समाज , परिवार या खुद के द्वारा खींची गयी लकीर को तोड़ने को बाध्य करता रहता है...मैंने इस सोच के साथ ही इस बिम्ब का प्रयोग किया था...बहुत आभारी हूँ की आपने इतनी सूक्ष्मता के साथ इसे पढ़ा और जो आशंका थी उसका जवाब भी मांगा...कितना सफल हुआ ये नहीं कह सकता लिखने और प्रयुत्तर देने मे पर आप सब के विचार प्रोत्साहन के साथ सुधार का रास्ता भी दिखाते हैं ,ये तो निश्चित है ....
रश्मि जी,धन्यवाद...
वंदना जी,असल में तो बंधनमुक्त हो जाना ही प्यार है...धन्यवाद आपको...
दिगंबर जी इश्क़ ए हक़ीक़ी में इंतज़ार कभी खत्म नहीं होता....और जिस दिन वो खत्म हो जाता उस दिन प्यार भी...
ऐसा ही होता है शाश्वत प्रेम में..
एक टिप्पणी भेजें